Apr 29, 2011

दो नावों पर सवार हैं प्रचंड


नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी आन्दोलन की भूमिका को लेकर जारी बहस व्यापक होती जा रही है. यह बहस ऐसे समय में चल रही है जब वहां 2005 में हुए संविधान सभा के चुनाव का कार्यकाल 28 मई को खत्म होने जा रहा है. एक दशक के जनयुद्ध के बाद शांति प्रक्रिया में शामिल होकर नया संविधान बनाने का सपना लिए सत्ता में भागीदारी की माओवादी पार्टी, अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकी है.इसे लेकर पार्टी के भीतर और बाहर तमाम मत-मतान्तर हैं.जनज्वार की कोशिश होगी कि सभी पक्षों को बगैर पूर्वाग्रह के आने दिया जाये, जिससे हम अपने समय और समाज को और नजदीक से समझ सकें. इस कड़ी में  1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? ,2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति के बाद   तीसरा लेख आपके बीच है...

नीलकंठ के सी

आनंद स्वरुप वर्मा का लेख 'क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है' कई मायनों  में महत्वपूर्ण है.अव्वल तो इसलिए कि यह किसी जज्बाती क्रन्तिकारी का क्रंदन  नही है बल्कि एक परिपक्व लेखक का सोचा समझा नजरिया है और इसलिए इसे सहज ही अनदेखा नहीं  किया जा सकता.दूसरी बात यह कि आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल के मामले में भारत के पाठको के बीच सन्दर्भ बिंदु के रूप में देखे जाते है और पुरानी परम्परा के अनुसार नेपाल के उनके नजरिये को बिना विवाद के स्वीकार किया जाता रहा है.उसकी वजह यह थी कि उन्होंने कभी खुद को एक पत्रकार के दायरे से बाहर नहीं  निकाला   और वस्तुगत स्थितियों   पर तथ्यपरक टिप्पणी   दी.

नेपाल के माओवादी आन्दोलन पर उनकी पहली पुस्तक ‘रोल्पा से डोल्पा तक’और इसके बाद के तमाम लेख और हाल में उनके द्वारा निर्मित फिल्म 'फलेम्स ऑफ़ दी स्नो'इसके उदाहरण है.लेकिन इस लेख में वे पत्रकारिता के दाएरे से बाहर आकर एक वैचारिक विश्लेषण करने का प्रयास करते है और बहुत सी दिलचस्प सुझाव देकर नेपाल की माओवादी राजनीति  में हो रहे वैचारिक संघर्ष के एक हिस्से के साथ खुद को खड़ा कर लेते है. अभी यह तय होना बाकि है की कौन सी लाइन नेपाल की जनता के हित में है लेकिन यह जरूर तय हो चुका है कि कौन सी लाइन उस लाइन का सही विस्तार है,जिसे जनयुद्ध शरू होने के समय नेपाल की पार्टी माओवादी ने अपना लक्ष्य बनाया था.

अपने लेख की शुरुआत  वे बहुत ही भावनात्मक टिप्पणी से करते है और बिलकुल सही तथ्य सामने रखते हैं कि,'जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए.' लेकिन जब वे यह साफ़ करते है कि वे लक्ष्य क्या थे तो घपला कर देते है.वे कहते है, “शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है, संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि आदि.' क्या हमें  मान लेना चाहिए कि आनंद स्वरुप वर्मा ने भूल से ऐसा लिख दिया जबकि खुद प्रचंड, बाबुराम और किरण ने आजतक ऐसा नहीं कहा है. कमसे कम दस्तावेजो में बाबुराम और प्रचंड शांति, संविधान को क्रांति का अंतिम लक्ष्य कहने से आज भी बचते है. क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि  वे गलती से भूल गये कि यहाँ वे जिसे 'आदि आदि'कहते है वे ही क्रांति के घोषित लक्ष्य है. जनयुद्ध के शुरुआत में जो नारा पार्टी ने दिया था वह था,'सत्ता के सिवा सब कुछ भ्रम है'.और सत्ता का अर्थ था समाजवादी सत्ता- श्रमजीवी वर्ग की तानाशाही.

आगे एक ही साँस में वे कहते है,  'जनयुद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था' और यह भी कि,“मान्यवर,आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं”. एक जनयुद्ध जिसने 'अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था', क्या आज उसे सिर्फ इसलिए आत्मसमर्पण कर देना चाहिए कि कुछ लोग मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं'. फिर वे ही क्यों सही हो जो मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं', वे लोग क्यों नही सही हो सकते जो विद्रोह को वस्तुपरक मानते है!

इसके बाद वे लिखते हैं,“आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है. संविधान बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है.मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही.वाईसीएल टूट के कगार पर है. सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं.ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता.” वे यहाँ ये बताने की कोशिश करते है कि संविधान का न बनना,जनमुक्ति सेना का नेपाल सेना में विलय न होना पार्टी की विफलता है और उसे जल्द से जल्द इसे पूरा करना चाहिए. जबकि दुसरे नजरिये से ये विफलता एक महत्वपूर्ण सफलता का आधार बन सकती है.क्योंकि यही तो तय था और दस्तावेज में शामिल किया गया था की, ' प्रतिक्रियावादी ताकते संविधान नही बनने देंगी और इसी आधार पर विद्रोह किया जायेगा'.

रही बात 'मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट' की तो वर्मा जी को यह कैसे नहीं पता कि मजदूर गुटों में वर्चस्व के सवाल पर विवाद नही है बल्कि लाइन के सवाल पर विवाद है और इसी तरह वाईसीएल भी लाइन के आधार पर ही टूट के कगार पर है. जहाँ तक सांस्कृतिक मोर्चे का सवाल है तो उसने तो बहुत पहले ही, 'प्रचंड पथ' की संस्कृति को त्याग दिया है.जहाँ भी सांस्कृतिक प्रदर्शन हुआ है एक ही बात बार बार कही गई है कि 'यहाँ रुक जाना गलत है'. नेपाल के आन्दोलन की जरा सी समझ रखने वाला व्यक्ति जानता  है कि, 'शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप'नहीं लगाए जा रहे हैं बल्कि पार्टी के प्रचंड समूह पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं! और ये आरोप 'लफ्फाज' किरण ने नही बल्कि 'दूरदर्शी' बाबुराम ने लगाये है.

इसके बाद तो वे आवेग में आकर बिना सन्दर्भ के 'नस्लीय' टिप्पणी  कर देते है.वे कहते है “लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है.मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है.क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है.माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता.” याने जो कोई प्रचंड पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगाएगा या 'नेतृत्व' को चुनौती देगा वह ऐसा किसी खास 'पर्वतीय मानसिकता' के तहत करेगा!

वर्मा जी ने आगे लिखा है,“पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है.नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है” यह कथन उस हद तक ठीक है जब तक कि, 'पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है और अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है'पर सवाल है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है?वर्माजी कैसे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते है कि नेताओं के वक्तव्यों में चालाकी नहीं है बल्कि एक खास नेता याने प्रचंड के वक्तव्यों में एक चालाकी है.प्रचंड को अच्छी तरह पता है कि विद्रोह की लाइन के साथ बने रह कर ही खुद की साख बचाई जा सकती है और शांति की बात करके भारत का विश्वास जीता जा सकता है.वे इसी निति के तहत काम कर रहे है और इसलिए कन्फ्यूजन  बना हुआ है.प्रचंड दोनों नावो में सवारी करना चाहते है. वे एक ही साथ  क्रन्तिकारी भी कहलाना चाहते है और 'राजनेता' भी.

इसके बाद वे पूरी आक्रमकता के साथ किरण पर हमला करते है, “किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी.उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया,संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली.क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर,ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया. किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से..........?”

यहाँ वे यह बताना जरूरी नहीं समझते कि किरण तुरंत विद्रोह की बात नहीं करते बल्कि उसकी प्रक्रिया में जाने की बात कर रहे है.उनका मानना है कि विद्रोह की तैयारी  के लिए गावों  में आधार बनाना चाहिए और चुनाव में जाने का अर्थ माओवादी क्रांति के सन्दर्भ में इस व्यवस्था को स्वीकार करना तो कभी नही था.आनंद जी घोषणा करते है कि यदि विद्रोह होगा तो वह पेरिस कम्यून के निष्कर्ष में पहुचेगा.क्या विद्रोह का दूसरा निष्कर्ष 'सोवियत क्रांति' नहीं हो सकता?और क्या क्रांति करने के लिए  जंगल जाना ही लाजमी है? जब वे यह कह रहे होते है कि, “क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है”तो क्या वे भी उसी निराशावादी सोच  के शिकार नहीं लगते जहाँ बदलाव एक मजाक है.एक पुराने समाजवादी को क्रांतिकारी नारे इतने अव्यावहारिक क्यों लग रहे है? और यदि लग भी रहे  हैं  तो दूसरों  को इस तरह की सलाह देने के पीछे उनकी पॉलिटिक्स   क्या है?

आगे वे एक सच्चे मित्र की तरह प्रचंड को बताना नही भूलते कि क्रांति की बातें करना 'लफ्फाजी'है और उन्हें अब अपने कार्यकर्ताओं को धोखे में नहीं रखना चाहिए.वे उन्हें यह भी याद दिलाते है कि, “आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है.”क्या आनंद जी से यह आशा करना गलत होता कि वे प्रचंड को बताते कि उनके वैचारिक विचलन के कारण ही आत्मगत तैयारी कम हुई है.

प्रचंड  'मुग्धता' में वे प्रचंड को क्रांति का पर्यायवाची  मान लेते हैं और तय कर लेते है की यदि प्रचंड की आत्मगत तैयारी कम है तो जाहिर तौर पर पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की भी आत्मगत तैयारी कम ही होगी!क्या मार्क्सवाद के जानकार मार्क्सवाद की इस प्रस्थापना को भूल गये कि नेता और क्रांति का जन्म आवश्यकता  के तहत होता है और क्रांति के सामाजिक  कारण होते हैं और यह भी की क्रांति किसी नेता विशेष की इच्छा,उसकी आत्मगत स्थिति के अनुसार आगे नहीं  बढती बल्कि नेता का निर्माण ही क्रांति के विकास के साथ होता है.

आनंद जी को कैसे ये लग गया की नेपाल की क्रांति का यही निर्णायक अंत है.क्या 2006 और आज के बीच उन सभी सामाजिक कारको में आमूल परिवर्तन आ गया है जिस के आधार पर नेपाल में क्रांति अनिवार्य बन गई थी?जब वे बताते है कि,“विद्रोह की बात महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन”है तो वे ऐसा कैसे भूल जाते है कि जनयुद्ध भी एक समय,'लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन' ही था.

आगे वे सोच समझकर प्रचंड को सलाह देते है कि वे जल्दी से अपनी निष्ठा बाबुराम के पक्ष में लगा दें  और 'साहस' के साथ कह दें कि, “किरण जी, आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं.नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधान  निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए”.बाप रे बाप एक समाजवादी के लिए समाजवाद 'यूटोपिया' और पूंजीवाद 'यथार्थ'. ऐसा कहने के उनके साहस को 'लाल सलाम'.

इसके बाद वे बहुत ही घातक निष्कर्ष पर पहुचते हैं,जो उनकी पुरानी जनपक्षधरता को देखते हुए हैरान करता है  कि प्रचंड के ऐसा करने से भारत उनका साथी हो जायेगा और “शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती”.आनंद जी गुलामी की पुरानी परंपरा को बचाए रखने का सुझाव प्रचंड को देते वक्त आप किस प्रकार की जनवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे है जरा हमें भी समझाइए.नेपाल की जनता का हित क्रांतिकारी  प्रतिरोध में है कि अवसरवादी आत्मसमर्पण में? यह नेपाली जनता के शुभचिंतक का कथन है कि एक भारतीय उग्र राष्ट्रवादी का सुझाव?

बहरहाल आनंद जी के लेख ने यह तो स्पष्ट किया है कि आज के दौर में वैचारिक विचलन न सिर्फ नेपाल की माओवादी पार्टी के एक तबके के भीतर बल्कि उसके पुराने समर्थको के अन्दर भी जड़ जमा चुका है.

(लेखक  नेपाली एकता मंच दिल्ली राज्य के सदस्य हैं. )


परमाणु ऊर्जा घुटनाटेकू राजनीति की मजबूरी है !


संदर्भ केन्द्र की 12वीं सालगिरह के मौके पर इन्दौर प्रेस क्लब में 20अप्रैल को आयोजित कार्यक्रम में  परमाणु मामलों के जानकार  डॉ. विवेक मोंटेरो का दिया गया भाषण...

डॉ. विवेक मोंटेरो

भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है,सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। देश की जनता को धोखे में रखकर भारत में परमाणु कार्यक्रम बरास्ता जैतापुर जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है,वहाँ अगर कोई दुर्घटना नहीं भी होती है तो भी आर्थिक रूप से देश की जनता को एनरॉन जैसे,और उससे भी बड़े आर्थिक धोखे का शिकार बनाया जा रहा है। और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो आबादी के घनत्व को देखते हुए ये सोचना ही भयावह है लेकिन निराधार नहीं, कि भारत में किसी भी परमाणु दुर्घटना से हो सकने वाली जनहानि का परिमाण कहीं बहुत ज्यादा होगा।

फुकुशिमा में परमाणु रिएक्टरों के भीतर हुए विस्फोटों को ये कहकर संदर्भ से अलगाने की कोशिश की जा रही है कि वहाँ तो सुनामी की वजह से ये तबाही मची। और भारत में तो सुनामी कभी आ नहीं सकती। उन्होंने कहा कि ये सच है कि फुकुशिमा में एक प्राकृतिक आपदा के नतीजे के तौर पर परमाणु रिसाव हुआ लेकिन जादूगुड़ा या तारापुर या रावतभाटा या कलपक्कम आदि जो भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं, जहाँ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, ऐसा नहीं है। वहाँ के नजदीकी गाँवों और बस्तियों में रहने वाले लोगों में अनेक रेडियोधर्मिता से जुड़ी बीमारियों का फैलना साबित करता है कि परमाणु विकिरण के असर उससे कहीं ज्यादा हैं जितने सरकार या सरकारी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।

व्याख्यान देते डॉक्टर विवेक
 लोग आमतौर पर सोचते हैं कि परमाणु ऊर्जा सिर्फ बम के रूप में ही हानिकारक होती है,लेकिन सच ये है कि परमाणु बम में रेडियोएक्टिव पदार्थ कुछ किलो ही होता है और विस्फोट की वजह से उसका नुकसान एकबार में ही काफी ज्यादा होता है,जबकि एक रिएक्टर में रेडियाधर्मी परमाणु ईंधन टनों की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। परमाणु ईंधन को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी उस पर लगातार छोड़ा जाता है। ये पानी परमाणु प्रदूषित हो जाता है और इसके असर जानलेवा भी होते हैं। फुकुशिमा में ऐसा ही साठ हजार टन पानी रोक कर के रखा हुआ था जिसमें से 11हजार टन पानी समंदर में छोड़ा गया और बाकी अभी भी वहीं रोक कर के रखे हैं। जो पानी छोड़ा गया है,वो भी काफी रेडियोएक्टिव है और उसके खतरे भी मौजूद हैं।

जहाँ तक परमाणु ऊर्जा की लागत का सवाल है तो इसके लिए आवश्यक रिएक्टर तो बहुत महँगे हैं ही और भारत-अमेरिकी परमाणु करार की वजह से हम पूरी तरह तकनीकी मामले में विदेशों पर आश्रित हैं। साथ ही किसी भी परमाणु संयंत्र की लागत का अनुमान करते समय न तो उससे निकलने वाले परमाणु कचरे के निपटान की लागत को शामिल किया जाता है और न ही परमाणु संयंत्र की डीकमीशनिंग (ध्वंस)को। कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का ध्वंस तथा उसके रेडिएशन कचरे को दफन करना बहुत बड़े खर्च का मामला होता है। और अगर परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके खर्च का तो अनुमान ही मुमकिन नहीं। चेर्नोबिल की दुर्घटना से 1986 में 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिए रहने योग्य नहीं रह गया। परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी जमीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ के आँकड़े 9लाख भी बताये जाते हैं। क्या इसकी कीमत का आकलन किया जा सकता है? विकिरण के असर को खत्म होने में 24500 वर्ष लगने का अनुमान है, तब तक ये जमीन किसी भी तरह के उपयोग के लिए न केवल बेकार रहेगी बल्कि इसे लोगों की पहुँच से दूर रखने के लिए इसकी सुरक्षा पर भी हजारों वर्षों तक खर्च करते रहना पड़ेगा।

फुकुशिमा के हादसे के बाद से दुनिया के तमाम देशों ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को स्थ्गित कर उन पर पुनर्विचार करना शुरू किया है। जर्मनी में तो वहाँ की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। वे सिर्फ दूसरे कमजोर देशों को बेचने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं। इसके बावजूद भारत सरकार ऊर्जा की जरूरत का बहाना लेकर जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए आमादा है। कारण कि  प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारों देशों से 10-10हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देश में स्थापित करेगा। ये हमारे देश की नयी विदेश नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीशों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है।

महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर में लगाये जाने वाले परमाणु संयंत्र के बारे में उन्होंने बताया कि वहाँ फ्रांस की अरीवा कंपनी द्वारा लगाया जाने वाला परमाणु संयंत्र खुद फ्रांस में ही अभी सवालों के घेरे में है और हम भारत में उसे लगाने के लिए तैयार हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के पीछे भी ये व्यापारिक समझौता ही प्रमुख था। उन्होने विभिन्न स्त्रातों का हवाला देकर बताया कि परमाणु संसाधनों से बनने वाली ऊर्जा न केवल अन्य स्त्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जा से महँगी होगी बल्कि वो देश की ऊर्जा की जरूरत को कहीं से भी पूरी कर सकने में सक्षम नहीं होगी। खुद सरकार मानती है कि परमाणु ऊर्जा हमारे मौजूदा कुल ऊर्जा उत्पादन का मात्र 3 से साढ़े तीन प्रतिशत है जो अगले 40 वर्षों के बाद अधिका अधिक 10 प्रतिशत तक पहुँच सकेगी,वो भी तब जब कोई विरोध या दुर्घटना न हो। उन्होंने कहा कि एक मीटिंग में मौजूदा पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उनसे बिलकुल साफ कहा था कि महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाला परमाणु संयंत्र किसी भी कीमत पर बनकर रहेगा और इसकी वजह ऊर्जा की कमी नहीं बल्कि हमारी विदेश नीति और अन्य देशों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं।


परमाणु ऊर्जा के नफा -नुकसान को समझते श्रोता
जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है,ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। बहुत दिलचस्प तरह से इसका खुलासा करते हुए उन्होंने मुंबई के एक 27 मंजिला घर की स्लाइड दिखाते हुए कहा कि इस बंगले में एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी स्लाइड दिखाते हुए उन्होंने कहा कि शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6लाख यूनिट की है। अगर देश में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

पवन,सौर तथा बायोमास जैसे विकल्पों का संक्षेप में ब्यौरा देकर अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी महँगी, खतरनाक और नाकाफी है तो फिर उसे किस लिए देश की जनता पर थोपा जा रहा है-ये देश के लोगों को देश की सत्ता संभाले लोगों से पूछना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय ताकतों के सामने और उनके मुनाफे की खातिर देश की राजनीति और देश के लोगों की सुरक्षा को दाँव पर लगाया जा रहा है। ये मसला ऊर्जा की जरूरत का नहीं बल्कि राजनीति के पतन का है और पतित राजनीति का मुकाबला राजनीति से अलग रहकर नहीं बल्कि सही राजनीति के जरिये ही किया जा सकता है।



अमेरिका से भौतिकी में पीएच.डी.कर लेने के बाद कुछ समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो। फिलहाल वे मजदूर संगठन सीटू के महाराष्ट्र के राज्य सचिव हैं और जैतापुर में चल रहे परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन ‘कोंकण बचाओ समिति’में शामिल हैं।